'कौशिक' की कलम से


दिल में आए ख्यालों को लफ्जों में पिरोता हूँ ,लिखने के इस सलीके को लोग नाम शायरी का देते हैं ,



नादाँ थे हम समझे नहीं .....

ये सोचकर अपना दर्द ,
हम उस बेदर्द को सूनाते रहे ...
जीत लूँगा एक दिन उनका दिल ,
हम पथरों से सर टकराते रहे ,
लोग हमे समझाते रहे ॥
नादाँ थे हम समझे नहीं ,
हर कदम पे ठोकर खाते रहे ...
थक गए हैं अब तो चलते चलते,
टूट चुके हैं सब सहते सहते ...
जिस पे भी किया भरोसा ,
उसी से धोखा खाते रहे ,
नादाँ थे हम समझे नहीं,
हर कदम पे ठोकर खाते रहे...
खुद को हमने बदलकर देखा ,
ज़माने के साथ थोडा चलकर देखा,
मुश्किल था यूँ खुद को बदलना ,
आसान नहीं था ज़माने संग चलना,
फिर भी दिल को समझाते रहे ,
नादाँ थे हम समझे नहीं ,
हर कदम पे ठोकर खाते रहे....
हम रह गए पीछे,
जमाना निकल गया आगे
हमने गैरों से मुहँ मोड लिया ,
सब कुछ अपनों पे छोड़ दिया
वो कैसे अपने थे
जो गैरों की तरह हमे खाते रहे ..
।नादाँ थे हम समझे नहीं ,
हर कदम पे ठोकर खाते रहे ....
हमे आज भी है इतना यकीं ,
खुदा की रहमत होगी कभी न कभी ..
।हम सच्चे हैं अगर तो जीत होगी ,
किसी को हमसे भी सच्ची प्रीत होगी ...
कोई हमारा भी सहारा बनेगा ,
हमें भी एक दिन किनारा मिलेगा ॥
पा लेगा मंजिल उस दिन ,कौशिक "
खुदा का जब सहारा होगा ....,


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